जब पूरा देश Raksha Bandhan का स्नेहपर्व मना रहा होता है, मुरादनगर क्षेत्र के सुराना गांव में इस दिन को अपशकुन के रूप में देखा जाता है। गांव के लोग रक्षाबंधन नहीं मनाते हैं, और इसके पीछे एक गहरा इतिहास छिपा हुआ है।
तराईन के युद्ध से जुड़ी है रक्षाबंधन के बहिष्कार की कहानी
सुराना गांव मूल रूप से छबड़िया गोत्र के यदुवंशी अहीरों द्वारा बसाया गया था, जो सन 1106 के आसपास राजस्थान के अलवर से हरनंदी के तट पर आ बसे थे। इस गांव का नाम पहले “सौराणा” था, जो कालांतर में “सुराना” हो गया।
1192 में तराईन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद, उनके बचे हुए अहीर यादव सिपाहियों ने सुराना गांव में शरण ली थी। मोहम्मद गौरी ने अपनी पचास हजार की सेना के साथ सुराना गांव को घेर लिया और सिपाहियों को हवाले करने या युद्ध करने की धमकी दी।
यदुवंशी योद्धाओं ने अपनी आन पर जान लुटाते हुए शरणागत सिपाहियों को गौरी के हवाले करने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप, रक्षाबंधन के दिन अपनी बहनों से राखी बंधवाने के बाद, यदुवंशी योद्धा केसरी बाना पहनकर गौरी की विशाल सेना के सामने जा डटे और सैकड़ों योद्धाओं ने अपनी कुर्बानी दी। इसके बाद, गौरी के आदेश पर गांव के बचे हुए वृद्ध, महिलाएं और बच्चों का नृशंस नरसंहार कर दिया गया।
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इस खूनी रक्षाबंधन की याद आज भी सुराना के लोगों के दिलों में जिंदा है, और इसी कारण से यहां रक्षाबंधन को शोक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
चाहकर भी नहीं मना सकते रक्षाबंधन
सुराना गांव के निवासियों के लिए रक्षाबंधन का दिन एक उदासी भरा दिन होता है। पूर्व जिला पंचायत सदस्य विकास यादव का कहना है कि रक्षाबंधन के दिन गांव के सभी भाई-बहनें उदासी के साये में रहते हैं। जहां पूरे देश में भाई अपनी कलाईयों पर रंग-बिरंगी राखियां सजाते हैं, वहीं सुराना गांव में भाई खाली हाथ घूमते हैं।
ग्राम प्रधान जंगली फौजी ने बताया कि रक्षाबंधन के स्थान पर गांव में भैयादूज का पर्व बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। रक्षाबंधन की कमी गांव के लोग भैयादूज पर पूरी कर लेते हैं।
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यह अनूठा गांव अपनी ऐतिहासिक विरासत और पूर्वजों के बलिदान को याद करते हुए रक्षाबंधन के इस दिन को शोक दिवस के रूप में मनाता है, जिससे यह त्यौहार यहां एक विशेष महत्व रखता है।