केंद्र सरकार ने Supreme Court में मैरिटल रेप को अपराध के दायरे में लाने की मांग करने वाली याचिकाओं का विरोध करते हुए एक हलफनामा दाखिल किया है। सरकार ने कहा है कि मैरिटल रेप का मुद्दा कानूनी से अधिक सामाजिक है और इसे अपराध बनाने की आवश्यकता नहीं है।
Supreme Court: सामाजिक मुद्दा बताया
केंद्र सरकार के अनुसार, मैरिटल रेप के मामले में पहले से मौजूद “उपयुक्त रूप से तैयार दंडात्मक उपाय” उपलब्ध हैं। सरकार ने कहा कि यह मुद्दा समाज पर सीधा असर डालता है, और इस पर निर्णय लेने से पहले सभी हितधारकों से उचित परामर्श करना जरूरी है।
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मैरिटल रेप और सहमति का मुद्दा
सरकार ने यह भी कहा कि विवाह के दौरान महिला की सहमति समाप्त नहीं होती है, और इसके उल्लंघन पर दंडात्मक परिणाम होना चाहिए। हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि विवाह के भीतर इस प्रकार के उल्लंघन के परिणाम विवाह के बाहर के उल्लंघन से भिन्न होने चाहिए।
वर्तमान कानूनों का समर्थन
केंद्र ने मौजूदा कानूनों का समर्थन करते हुए बताया कि संसद ने विवाह में महिला की सहमति की रक्षा के लिए विभिन्न उपाय किए हैं। इनमें भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत विवाहित महिलाओं के प्रति क्रूरता के मामलों को दंडित करने वाले कानून शामिल हैं।
याचिकाकर्ताओं के दृष्टिकोण का खंडन
केंद्र ने याचिकाकर्ताओं के दृष्टिकोण को एकतरफा और गलत बताया, यह कहते हुए कि यौन संबंध पति-पत्नी के बीच के रिश्तों का एक पहलू है। उन्होंने कहा कि इस संदर्भ में विवाह की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, यदि विधायिका का विचार है कि विवादित अपवाद को बरकरार रखा जाना चाहिए, तो अदालत द्वारा इसे रद्द करना उचित नहीं होगा।
केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में यह भी कहा कि यह दृष्टिकोण संविधान के समानता के अधिकार के अनुरूप है, क्योंकि यह दो अतुलनीय स्थितियों को समान मानने से इनकार करता है। उन्होंने यह भी कहा कि वे महिलाओं की स्वतंत्रता और गरिमा के प्रति प्रतिबद्ध हैं और मैरिटल रेप को अपराध मानने की आवश्यकता नहीं है।