उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए समाजवादी पार्टी (सपा) ने अपने चार दशक के इतिहास में पहली बार विधानसभा में ब्राह्मण नेता को नेता प्रतिपक्ष नियुक्त किया है। यह निर्णय ऐसे समय में लिया गया है जब Akhilesh Yadav का PDA (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) फार्मूला राजनीतिक रूप से सफल हो रहा है। सपा के भीतर इस फैसले को लेकर मिले-जुले विचार हैं, वहीं भाजपा और बसपा ने भी इस पर सवाल उठाए हैं। जातीय जनगणना और संविधान बचाओ जैसे मुद्दों के बीच, अखिलेश के इस निर्णय ने यह चर्चा शुरू कर दी है कि क्या ब्राह्मण वोटों की गोलबंदी के लिए सियासी कवायद तेज होगी?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नेता प्रतिपक्ष के रूप में माता प्रसाद पांडेय का चयन अखिलेश के सामाजिक दांव से अधिक पार्टी और सदन के भीतर संतुलन बनाने की कोशिश है। विशेष रूप से शिवपाल यादव जैसे वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में सैफई परिवार से बाहर किसी उपयुक्त चेहरे का चयन आसान नहीं था।
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माता प्रसाद के बहाने ‘प्रसाद’ की तलाश
माता प्रसाद पांडेय को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने पर सबसे पहला सवाल भाजपा के वरिष्ठ नेता और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने उठाया। उन्होंने PDA की उपेक्षा का मुद्दा उठाया और कहा कि सपा ने पिछड़ों को नजरअंदाज किया है। लोकसभा चुनाव में पिछड़े वोटों के खिसकने और कुर्मी-मौर्य बहुल सीटों पर भाजपा की हार के बाद केशव सहित अन्य पिछड़े नेताओं का राजनीतिक कद सवालों के घेरे में है। ऐसे में नुमाइंदगी के सवाल के जरिए केशव खिसके वोटों की भरपाई की संभावना में लगे हैं। लेकिन भाजपा के ब्राह्मण नेताओं के सुर अलग हैं।
मानिकपुर से भाजपा के पूर्व विधायक आनंद शुक्ला ने ‘X’ (पूर्व ट्विटर) पर माता प्रसाद को बधाई देते हुए लिखा कि 15% ब्राह्मण वोटों की जरूरत सबको है। वहीं, बसपा प्रमुख मायावती की प्रतिक्रिया के बाद पार्टी में ‘नेपथ्य’ पड़े राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने सपा सरकार में अगड़ों-पिछड़ों की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए ब्राह्मण समाज पर हुए अत्याचारों को याद दिलाया है। इन टिप्पणियों से जाहिर है कि माता के बहाने भागीदारी का ‘प्रसाद’ पाने की कोशिशें सपा के विरोधी दलों में भी तेज हो गई हैं।
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लखनऊ में बंथरा गांव का विवाद
बीते शनिवार को लखनऊ के बंथरा गांव में बिजली नहीं आने को लेकर दो पक्षों में विवाद हो गया था, जिसमें ऋत्विक पांडे नामक युवक की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी। पीड़ित परिवार का आरोप है कि हत्या के एक सप्ताह बाद भी पुलिस ने किसी भी आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया है। इस मामले में सियासत भी तेज हो गई है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इस घटना का जिक्र करते हुए भाजपा सरकार और एक विधायक को कटघरे में खड़ा किया है, जिससे यह विवाद ब्राह्मण बनाम ठाकुर का रूप ले रहा है। ऋत्विक पांडेय की हत्या के सिलसिले सपा का प्रतिनिधिमंडल ऋत्विक के घर पहुंचा. सपा के प्रतिनिधिमंडल में सपा के ब्राह्मण नेता शामिल हुए.
घटना का पूरा विवरण
शनिवार रात लखनऊ के बंथरा गांव में बिजली सप्लाई को लेकर दो पक्षों में बवाल हुआ। रात करीब 10 बजे बिजली की सप्लाई शुरू हुई, लेकिन ऋत्विक पांडे के इलाके में बिजली नहीं आ रही थी। इस दौरान ऋत्विक कुछ लोगों के साथ बाहर निकला और मौके पर पहुंचा। दूसरी तरफ से गांव के ही रिशू सिंह व अन्य लोग भी मौके पर पहुंचे। बिजली सप्लाई को लेकर विवाद और मारपीट शुरू हो गई। मामला शांत होने के बाद ऋत्विक अपने घर लौट आया, लेकिन कुछ देर बाद रिशू और उसके परिवार वाले ऋत्विक के घर पहुंचे और मारपीट शुरू कर दी। इस दौरान ऋत्विक की मौत हो गई और उसके पिता और भाई घायल हो गए। पीड़ित परिवार का कहना है कि पुलिस ने इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की।
राजनीतिक समीकरण में ब्राह्मणों की अहमियत
उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दल और ब्राह्मण संगठन 10 से 12% ब्राह्मणों की आबादी का दावा करते हैं। 90 के दशक में मंडल उभार से पहले ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम समीकरण के जरिए कांग्रेस सत्ता में हावी रही। यूपी के सभी ब्राह्मण मुख्यमंत्री कांग्रेस के दौर में ही हुए। मंडल और कमंडल की राजनीति में ब्राह्मणों ने भाजपा का साथ दिया। 2007 में मायावती ने ब्राह्मण-दलित सामाजिक इंजीनियरिंग का फॉर्मूला निकाला और ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’ का नारा दिया, जिससे बसपा सत्ता में आई।
CSDS के आंकड़े बताते हैं कि 2007 में भी ब्राह्मणों का सर्वाधिक वोट भाजपा को गया था, लेकिन 2002 के मुकाबले बसपा को 11% अधिक ब्राह्मण वोट मिले थे। बसपा के 40 विधायक ब्राह्मण थे, जबकि 2012 में सपा से 21 ब्राह्मण जीते थे। 2014 के लोकसभा चुनाव से ब्राह्मण वोट फिर भाजपा के साथ लामबंद हो गए। 2019 में 80% ब्राह्मण वोट भाजपा को मिले और 2022 में भी यही ट्रेंड रहा। विधानसभा में पहुंचने वाले 52 ब्राह्मणों में से 46 NDA के थे।
विश्लेषकों का कहना है कि वोटों के गणित के साथ ही परसेप्शन की केमेस्ट्री में भी यह बिरादरी असर दिखाती है। अखिलेश अपने कोर वोटरों को समझाने में सफल रहे कि भाजपा को हराने के लिए सबको जोड़ना होगा। 2027 की रणनीति के लिए भी यह बात लागू होती है। बसपा की चिंता यह है कि उसका दलित वोट खिसक रहा है और सपा अगड़ों में भी हिस्सा बढ़ाने में जुटी है। ऐसे में हाशिए पर चल रही बसपा को सर्वाधिक नुकसान दिख रहा है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद आंतरिक कलह से जूझ रही भाजपा के सामने पिछले एक दशक में कमाई पूंजी को बचाने की चिंता है, जो हालिया चुनाव में खिसकती नजर आई है। इसलिए, पार्टी के कोर वोट को लुभाने की सपा की चाल ने उसकी चिंता बढ़ा दी है।
विधानसभा में ब्राह्मणों की नुमाइंदगी
- 1980 में विधानसभा में 87 ब्राह्मण विधायक थे।
- 2002 में 41 ब्राह्मण विधायक पहुंचे।
- 2007 में 56 ब्राह्मण विधायक थे।
- 2012 में 47 ब्राह्मण विधायक थे।
- 2017 में 58 ब्राह्मण विधायक थे।
- 2022 में 52 ब्राह्मण विधायक जीते।
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